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अवो॑चाम क॒वये॒ मेध्या॑य॒ वचो॑ व॒न्दारु॑ वृष॒भाय॒ वृष्णे॑। गवि॑ष्ठिरो॒ नम॑सा॒ स्तोम॑म॒ग्नौ दि॒वी᳖व रु॒क्ममु॑रु॒व्यञ्च॑मश्रेत् ॥२५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अवो॑चाम। क॒वये॑। मेध्या॑य। वचः॑। व॒न्दारु॑। वृ॒ष॒भाय॑। वृ॒ष्णे॑। गवि॑ष्ठिरः। गवि॑स्थिर॒ इति॒ गवि॑ऽस्थिरः। नम॑सा। स्तोम॑म्। अ॒ग्नौ। दि॒वी᳖वेति॑ दि॒विऽइ॑व। रु॒क्मम्। उ॒रु॒व्यञ्च॒मित्यु॑रु॒ऽव्यञ्च॑म्। अ॒श्रे॒त् ॥२५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:25


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग जैसे (गविष्ठिरः) किरणों में रहनेवाली विद्युत् (दिवीव) सूर्यप्रकाश के समान (उरुव्यञ्चम्) विशेष करके बहुतों में गमनशील (रुक्मम्) सूर्य का (अश्रेत्) आश्रय करती है, वैसे (मेध्याय) सब शुभ लक्षणों से युक्त पवित्र (वृषभाय) बली (वृष्णे) वर्षा के हेतु (कवये) बुद्धिमान् के लिये (वन्दारु) प्रशंसा के योग्य (वचः) वचन को और (अग्नौ) जाठराग्नि में (नमसा) अन्न आदि से (स्तोमम्) प्रशस्त कार्यों को (अवोचाम) कहें ॥२५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। विद्वानों को चाहिये कि सुशील शुद्धबुद्धि विद्यार्थी के लिये परम प्रयत्न से विद्या देवें, जिससे वह विद्या पढ़ के सूर्य के प्रकाश में घट-पटादि को देखते हुए के समान सब को यथावत् जान सके ॥२५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्याह ॥

अन्वय:

(अवोचाम) उच्याम (कवये) मेधाविने (मेध्याय) सर्वशुभलक्षणसङ्गताय पवित्राय (वचः) वचनम् (वन्दारु) प्रशंसनीयम् (वृषभाय) बलिष्ठाय (वृष्णे) वृष्टिकर्त्रे (गविष्ठिरः) गोषु किरणेषु तिष्ठतीति (नमसा) अन्नादिना (स्तोमम्) स्तुत्यं कार्य्यम् (अग्नौ) पावके (दिवीव) यथा सूर्य्यप्रकाशे (रुक्मम्) आदित्यम् (उरुव्यञ्चम्) उरुषु बहुषु विशेषेणाञ्चति तम् (अश्रेत्) श्रयेत्। अत्र विकरणस्य लुक्। लङ्प्रयोगश्च ॥२५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - वयं यथा गविष्ठिरो दिवीवोरुव्यञ्चं रुक्ममश्रेत्, तथा मेध्याय वृषभाय वृष्णे कवये वन्दारु वचोऽग्नौ नमसा स्तोमं चावोचाम ॥२५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। विद्वद्भिः सुशीलाय शुद्धधिये विद्यार्थिने परमप्रयत्नेन विद्या देया। यतोऽसौ विद्यामधीत्य सूर्यप्रकाशे घटपटादीन् पश्यन्निव सर्वान् यथावज्ज्ञातुं शक्नुयात् ॥२५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्वानांनी सुशील व पवित्र बुद्धीच्या विद्यार्थ्यांना प्रयत्नपूर्वक विद्या शिकवावी. ज्यामुळे सूर्यप्रकाशात जसे सर्व पदार्थ पाहता येतात तसे ते विद्या शिकून सर्व गोष्टी यथायोग्य जाणू शकतील.